दिल्ली सल्तनत में इंडो-इस्लामिक स्थापत्यकला / वास्तुकला
12वीं सदी में तुर्क आक्रमणकारियों ने भारत में एक विशेष प्रकार की वास्तुकला को विकसित किया, जिसमें गुंबद, ऊँची मीनारें और मेहराब जैसी विशेषताएँ थीं। लेकिन भारत में पहले से ही एक उन्नत वास्तुकला शैली मौजूद थी, जिसमें सपाट छतें, खुले आंगन, शिखर और गोल खंभे शामिल थे। तुर्क अपने साथ कलाकार नहीं लाए थे, इसलिए उन्होंने भारतीय कलाकारों की मदद से इमारतें बनवाईं, जिन पर भारतीय शैली का गहरा प्रभाव दिखाई देता है। हिन्दू और मुस्लिम कला के सम्पर्क ने एक नवीन शैली को जन्म दिया, जिसे इंडो-इस्लामिक कला कहा जाता है। अलंकरण के लिए तुर्कों ने ज्यामितीय और पुष्प अलंकरण को अपनाया। कुरान की आयतें खुदवाना भी अलंकरण का एक तरीका था। तुर्कों ने हिन्दू अलंकरण के नमूने जैसे घंटियां, बेल, स्वास्तिक, कमल आदि का भी प्रयोग किया। तुर्क लाल पत्थर का प्रयोग करके अपनी इमारतों को रंगीन बनाते थे। लाल रंग को हल्का रखने के लिए इसमें पीला पत्थर और संगमरमर का प्रयोग भी किया जाता था।
दूसरी ओर जौनपुर और दक्षिण मे स्थानीय कलाओं ने अधिक ऊँचा स्थान प्राप्त किया। जबकि बंगाल में विजेताओ ने छेनियो से ढालकर सुन्दरता देने में हिन्दुओ की कला का अनुकरण किया। इसी प्रकार पश्चिमी भारत में भी उन्होने गुजराती कला का प्रयोग किया जिसने मध्यकालीन भारत मे कुछ उत्तम इमारतें प्रदान कीं और कश्मीर में भी उन्होंने लकड़ी के निर्माण का प्रयोग करके उसी कला का अनुकरण किया जो हिमालय के उस भाग में बहुत समय से चलती आ रही थी।
सल्तनतकालीन भवन शासकीय पोषण की उपज थे, अतः हिंद-इस्लामी कला में हर राजवंश एवं सुल्तान की पसंद और नापसंदगी साफ झलकती है। चूँकि कृषि से प्राप्त आय का एक बड़ा हिस्सा इन इमारतों में लगाया जाता था, इसलिए प्रत्येक वंश अपनी विशेष पहचान को स्थापित करने के प्रयत्न में नया निर्माणकार्य आरंभ करता था। इस प्रकार भारतीय इस्लामी शिल्पकला के विकास में कई विशिष्ट राजवंशीय शैलियाँ उभरी।
वास्तुकला में विदेशी व देशी कलाओं का ऐसा मिश्रण कुछ तत्त्वों द्वारा संभव हुआ। भारत मे तुर्कों को भारतीय कलाकार व शिल्पकार लगाने पड़ते थे जो निर्माण के विषय में अपने निजी विचार भी रखते थे और इसलिए वे निर्माण के दौरान मुस्लिम इमारतों मे अपने विचारों को भी शामिल करते थे। इसके अतिरिक्त अपनी मस्जिदो, मकबरो के निर्माण में मुसलमान लोग हिन्दू व जैन मन्दिरो की सामग्रीं का उपयोग करते थे। हिन्दू व मुस्लिम इमारतो में कुछ समानताएं भी थी, मुसलमानों ने उन मन्दिरों की चौड़ी छत तोड़कर उनके स्थान पर गुम्बद व मीनारें बनाकर उनको मस्जिद के रूप में बदल लिया। सर जान मार्शल के अनुसार हिन्दू मन्दिरों व मुस्लिम मस्जिदो मे एक समान त्तत्त्व यह है कि "उनमे खुले आँगन होते थे जिनके चारो ओर कमरे व दालान होते थे और ऐसे मन्दिर जो इस योजना के आधार पर बनाए जाते थे, उन्हें आसानी से मस्जिद में बदला जा सकता था। इसके अतिरिक्त एक विशेषता जो दोनो शैलियो में समान थी, वह यह थी कि हिन्दू व मुस्लिम दोनों ही कलाओं का आन्तरिक रूप सजावटी था। दोनो में सजावट अनिवार्य थी और अपने अस्तित्व के लिए दोनों एक दूसरे पर आश्रित थी।"
सर हेनरी शार्प के अनुसार, "इस्लाम के एकेश्वरवादी सिद्धांत को साबुत गुम्बद के सादेपन, नुकीले मेहराब और मीनारों के पतलेपन में आनन्द मिलता था। दूसरी ओर हिन्दू बहु-ईश्वरवाद में विभिन्नता और मानवीय आकार व प्रत्येक भाग की सजावट में विश्वास करते थे। विजेता लोग उन कलाओ के प्रभाव से न बच सके जो उनके चारों ओर फैली हुई थीं। हिन्दू सजावट इस्लामी रूपों पर आघात करने लगी, गुम्बद का सादापन कलश व सुन्दर रूप से कटे हुए कमल की आवश्यकता के आधीन आ गई। इसके अतिरिक्त, मुसलमानो ने हिन्दुओं से इमारतों का आनुपातिक भाग भी ग्रहण किया। ईसा खाँ व हुमायू के मकबरो मे हम मुस्लिम आदर्शों व हिन्दू निर्माण विधियो का सुन्दर समन्वय पाते है।"
कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद - कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा बनवाया हुआ प्रथम वास्तुकला का नमूना कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद है। इसका निर्माण 1192 ई० में दिल्ली विजय की स्मृति मे किया गया था। इसके भीतर एक खुला चार कोनो वाला आगन बनाया गया था जिसके चारों ओर दालान थे जिनमें पश्चिमी दालान पूजा के लिए था। अन्दर या बाहर से देखने पर इस इमारत मे जैसा इसका मौलिक रूप था, हिन्दू झलक थी। इमारत का आधा निचला भाग जिस पर यह बनाया गया, वास्तव मे एक हिन्दू मन्दिर का आधार भाग था और उसकी सामग्री में हिन्दुओ के 27 मन्दिरों का अंश था। 1230 ई० में इल्तुतमिश ने बाहरी आँगन को बढ़ाकर अर्थात् पूजा वाले दालान और उसकें बाहरी आवरण को तुड़वा कर इस मस्जिद का क्षेत्रफल दुगुने से भी अधिक कर दिया। यह नया निर्माण इस्लामी ढंग का था और इसका नक्शा मुस्लिम कारीगरों ने बनाया था।
कुतुब मीनार - कुतुब मीनार बनाने का आशय ऐसे मीनार का बनाना था जहाँ से मुसलमानों को प्रार्थना के लिए बुलाया जा सके, किंतु कुछ समय के बाद इसे विजय का मीनार माना जाने लगा। कुतुबुद्दीन ऐबक इसकी केवल एक मंजिल बनवा सका और शेष कार्य इल्तुतमिश ने पूरा किया। इसके आन्तरिक भाग में कुछ छोटे देवनागरी अभिलेखों के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है कि शुरू में यह एक हिन्दू मीनार था और मुसलमानों ने केवल बाहरी सतह में नई कटाई करा दी। सर जान मार्शल इस विचार को ठुकरा देते है क्योकि उनका यह कथन है कि मीनार का सारा विचार और इसके निर्माण व सजावट का प्रत्येक पहलू इस्लामी है। तब इस प्रकार के मीनारों से हिन्दू लोग अपरिचित थे, किन्तु मुसलमानों को उनका ज्ञान था।
फरग्यूसन महोदय का यह कहना है कि, यदि कहीं भी कोई मीनार है, तो कुतुब मीनार उसका सब से बड़ा उदाहरण है। सर जान मार्शल के मतानुसार, "इस विशाल मीनार के अतिरिक्त अन्य कोई भी वस्तु इस्लामी शक्ति का यथार्थ प्रतीक नहीं हो सकती; न ही कोई अन्य वस्तु इसके अलंकृत शिल्प से बढ़कर सुन्दर हो सकती है।"
इल्तुतमिश का मकबरा - इल्तुतमिश का मकबरा अपने रूप व पहलुओं में पूर्णतया स्पष्ट है। यह एक सादा चतुष्कोण इमारत है, किंतु इसकी सजावट काफी कलापूर्ण है। आन्तरिक भाग की सारी दीवारें फर्श से लेकर छत तक कुरान की आयतों से भरी हुई हैं।
सुल्तान घड़ी- सुल्तान घड़ी का निर्माण 1231 ई० मे हुआ। इसकी योजना इल्तुतमिश के मकबरे या भारत में अन्य किसी मकबरे के समान नहीं है। इसके चारों ओर दुर्ग-जैसा घेरा है और चारों किनारों पर गोल गुम्बद बने हुए हैं। घेरे का काफी आन्तरिक भाग हल्के भुरभुरे रंग के पत्थर का है, किन्तु मस्जिद व प्रवेश दालान और मकबरे का बाहरी भाग संगमरभर का है।
अढ़ाई दिन का झोंपड़ा - 1199 ई० मे कुतुबउद्दीन ऐबक ने इसे अजमेर में बनवाया था। बाद में इल्तुतमिश ने इसको तराशकर इसकी सुन्दरता बढ़ा दी। यह विचार कि इस इमारत का निर्माण ढाई दिन में हो गया स्वीकार नही किया जाता और यह कहा जाता है कि इसके पूरे होने मे ढाई वर्ष लगे। शैली व निर्माण में यह कुव्वित-उल-इस्लाम मस्जिद से मिलता जुलता है, किन्तु इसका क्षेत्रफल दुगुने से अधिक है और इसके कुछ भाग अधिक खुले व सुन्दर हैं। अजमेर के कारीगर एक बहुत ही सुन्दर हाल बनाने में सफल हुए हैं, किन्तु इसमे वह कोमल सौन्दर्य नहीं जो कि कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद में है।
बलबन का मकबरा- बलबन का मकबरा एक सादा इमारत है जिसमे एक चौकोर गुम्बद वाला कमरा है, जिसके हर पहलू में एक चौड़ा प्रवेश मार्ग है और उसके पूर्वी व पश्चिमी दिशा की ओर छोटे कमरे हैं। दुर्भाग्यवश मकबरे से प्रत्येक सजावट का चिन्ह अदृश्य हो चुका है और केवल खोखलापन रह गया है, किन्तु वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर निर्मित महराबो की उपस्थिति इसे महत्त्व प्रदान करती है। यह हिन्दू कारीगरों के हिन्दू प्रभाव के विरुद्ध प्रतिक्रिया का एक उदाहरण है।
जमात खाना मस्जिद - अलाउद्दीन खलजी ने कुतुब के पास भलाई दरवाजा व निजामुद्दीन औलिया के दरगाह पर जमात खाना मस्जिद का निर्माण कराया। जमात खाना मस्जिद भारत में ऐसी मस्जिद का सब से पुराना उदाहरण है जो पूर्णतया इस्लामी विचारों के अनुसार बनी है और जिसकी सामग्री केवल उसी के उद्देश्य से पत्थर की खानो में से निकाली गई थी। यह लाल पत्थर की बनी है और इसमें तीन कमरे हैं। शुरू में इस इमारत के निर्माण का आशय किसी मस्जिद का बनाना नहीं था, यह केवल शेख निजामुद्दीन का मकबरा था और इसमें केवल केन्द्रीय कमरा था। जब तुगलक वंश द्वारा इसको मस्जिद के रूप में बदला गया, तो शुरू के भाग में इसके इधर-उधर कुछ कक्ष और बढ़ा दिए गए।
अलाई दरवाजा - अलाई दरवाजा 1311 ई० में बनाया गया। यह दक्षिणी प्रवेशद्वार था जो कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद में अलाउद्दीन खलजी द्वारा बनवाए गए भाग तक ले जाता है। टूट-फूट होने के बाद भी, अलाई दरवाज़ा इस्लामी कला का एक सुरक्षित रत्न है। इल्तुतमिश के मकबरे की तरह इसमे एक चौकोर बड़ा कमरा है जिसकी छत पर एक गुम्बद है और इसकी चारों दीवारों में एक महरावदार प्रवेशद्वार है।
यह लाल पत्थर की है किन्तु कहीं-कहीं पर संगमरमर का भी प्रयोग किया गया है। इसमें कुरान की आयतों से काफी सजावट की गई है। प्रत्येक पहलू से, चाहे कला सम्बन्धी हो या सजावट सम्बन्धी, अलाई दरवाजा अद्वितीय है। दूर से देखने पर, इसकी अच्छे अनुपात में रक्खी गई महराबी दीवारें कहीं पर लाल और कहीं सफेद पत्थरों के रंगो से और भी सुन्दर दिखती हैं। वह ऊँचा चबूतरा जिस पर यह खड़ा है, इसे और भी सुन्दर बना देता है। सर जान मार्शल के शब्दों में, "इस इमारत के मूल लक्षण है- पूर्ण समानता। चाहे कोई भी कारीगर हो, वह मौलिक रुचि का व्यक्ति था जो परम्परागत विचारो से सन्तुष्ट नहीं था, जिसने स्वयं विचार किया और स्वयं ही निर्माण का प्रत्येक विषय पूरा किया।"
अलाउद्दीन खलजी के अन्य स्मारको में सीरी का नगर शामिल है। दिल्ली के आस-पास की जनता की रक्षा के विचार से 1303 में सीरी का नगर बसाया गया था। शहर के घेरे के केवल थोड़े ही चिन्ह शेष रह गए है और वही उस समय की सैनिक वास्तुकला पर प्रकाश डालते हैं।
तुगलक सुल्तानों के समय में वास्तुकला मे एक परिवर्तन हुआ। सजावट के अन्दरूनी भाग की सुन्दरता ने पुरानी रूढिवादी सादगी को स्थान दिया। इस परिवर्तन का कारण खलजी शासन मे अधिक घन के व्यय के प्रति घृणा थी तथा धर्म के प्रति तुगलक सुल्तानों की श्रद्धा भावना भी इसके लिए उत्तरदायी है। दिल्ली से दौलताबाद के लिए राजधानी के स्थानांतरण के कारण भी मुहम्मद तुगलक के शासन काल मे कुशल कारीगरी का काफी अभाव रहा।
गयासुद्दीन तुगलक के केवल दो स्मारक महत्त्वपूर्ण है और वे है तुगलकाबाब का नगर और मकबरा जो उसने अपने लिये बनवाया। प्राचीर, चबूतरे, छोटे छिद्र, ढालू प्रवेश मार्ग, खुले आँगन, और दोनो स्मारकों के ऊंचे पतले सन्तरी जैसे स्तम्भ अजेय शक्ति का प्रभाव उत्त्पन्न करते हैं। सगमरमर व लाल पत्थर, जिससे गयासुद्दीन तुगलक का मकबरा बनाया गया है, उनमे विचित्र रूप से नये ढंग के प्रयोग का दर्शन होता है। प्राचीरों द्वारा बनाया गया प्रभाव सादगी व शक्ति का प्रतीक है। तुगलक वंश के संस्थापक के लिये इससे उत्तम विश्रामगृह का निर्माण लगभग असंभव था।
अपने शासन के प्रथम दो वर्षों में मुहम्मद तुगलक ने आदिलाबाद के छोटे से दुर्ग की नीव डाली और इसके बाद जहाँपनाह के नगर की। आदिलाबाद केवल तुगलकाबाद नगर का बाहर की ओर विस्तार था और उसकी शैली भी लगभग इसी से मिलती-जुलती थी। जहाँपनाह को ऐसा बनाया गया था कि उससे पुरानी दिल्ली व सीरी की दीवारें मिल जाए। इस प्रकार दिल्ली की नई बस्तियाँ एक दूसरे से मिल गईं। चारो ओर 12 गज चौडी दीवार बनाई गई थी और उसमें खुरदरे पत्थर का प्रयोग किया गया था। सात स्तम्भो पर टिका एक पुल भी था जिसकी दो मजिलें थी और जिसमे प्रत्येक किनारे पर सहायक महराबे और एक मीनार थी जिससे दीवारों के भीतर झील मे से पानी खीचने का काम पूरा होता था।
फीरोज शाह तुगलक को नगरों, दुर्गों, महलों, बांधों, मस्जिदो और मकबरो के निर्माण का श्रेय प्राप्त है। उसने जौनपुर, फतेहाबाद और हिसार फीरोजा के नगरो की नीव डाली। उसने दिल्ली मे फीरोजाबाद का दुर्ग वनवाया। उसने मुस्लिम यात्रियों की सुविधा के लिए सराये बनवाई। नव-स्थापित नगरो तक पानी लाने के लिये नहरे खुदवाई गईं। फीरोज शाह ने फीरोज शाह कोटला भी बनवाया। वहाँ उसने 8 सार्वजनिक मस्जिदें, एक निजी मस्जिद व तीन महल बनवाये। फीरोजशाह ने स्वयं अपने लिये होज खास पर एक विद्यालय व एक मकबरा बनवाया।
सैय्यद व लोदी सुल्तानों के पास आर्थिक साधनों का काफी अभाव था और इसलिए वे इमारतों के विषय में अत्यन्त विशाल व खर्चीली योजनाएँ न बना सके। उस समय में वास्तुकला के मुख्य व सब से अच्छे उदाहरण सुल्तानों व सरदारों के मकबरे है। सुल्तानों के मुख्य मकबरे है- मुबारक शाह सैय्यद, मुहम्मद शाह व सिकन्दर लोदी के मकबरे। सरदारों के मकबरे महत्त्व व प्रभाव से रहित हैं और यदि कुछ को महत्त्व दिया भी जाए, तो उनमें बड़े खाँ व छोटे खाँ सरदारो के मकबरे, शीश गुम्बद, शिहाबुद्दीन ताज खाँ का मकबरा, दादी का गुम्बद और पोली का गुम्बद मुख्य है। सिकन्दर लोदी के वजीर ने मोठ की मस्जिद बनवाई थी और लोदियों के समय में वास्तुकला का यही सब से बड़ा उदाहरण माना जाता है। भारतीय और इस्लामी शैलियों का मिश्रण: इस कला में भारतीय मंदिरों की बारीक नक्काशी और इस्लामी इमारतों की विशालता का संगम देखने को मिलता है।
इन संरचनाओं ने इमारतों को एक नया आयाम दिया और विशाल सभा भवनों का निर्माण संभव बनाया। दिल्ली सल्तनत की इंडो-इस्लामिक कला ने भारतीय कला के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया है। इस कला ने न केवल इमारतों को एक नई शैली दी, बल्कि भारतीय और इस्लामी संस्कृतियों के बीच एक सेतु का भी काम किया।
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