मुग़ल काल में अख़लाक़ी संस्कृति
मध्यकाल में अखलाक साहित्य का तेजी से विकास हुआ। मुगल दरबार की संस्कृति का आधार प्रतिष्ठा और सम्मान था इसलिए मुगल दरबार में उच्च सामाजिक पद, प्रतिष्ठा और उच्च कुल में जन्म को प्राथमिकता दी जाती थी। अकबर के अमीर अब्दुल रहीम खान-ए-खान और अबुल फजल के भाई फैजी दोनों ही संपत्ति को तिरस्कार की नजर से देखते थे। जब बाबर ने आगरा पर कब्जा किया तो उसने आगरा के खजाने को काबुल के हर एक व्यक्ति में आवंटित कर दिया जिसकी वजह से उसे कलंदर नाम दिया गया। मुगलकाल में संपत्ति के लिए झगड़ा न के बराबर हुआ करता था जबकि मान मर्यादा और प्रतिष्ठा के लिए अक्सर लोग मरने मारने पर उतारू हो जाते थे। विद्वान हरबंस मुखिया का तर्क है कि मुगल दरबार भी अपने आप में एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था का सपना देखाता था जिसमें वह अपने आपको जनता से दूरी पर रखकर अपनी प्रजा के लिए एक आदर्श की भूमिका निभा सके।
सबसे पहला अखलाक साहित्य 13वीं शताब्दी में अखलाक-ए-नासिरी लिखा गया, जिसमें नासिर अल-दीन तूसी ने जीवन की प्रमुख दिनचर्याओं का उल्लेख किया है। इसमें भोजन करने, सोने, बातचीत करने के सलिकों के बारे में बताया गया है। इसके महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसे सम्राट अकबर को प्रतिदिन पढ़कर सुनाया जाता था। अखलाक साहित्य में मुख्य रूप से अभिजात वर्ग के रहने सहने के सलीको और शिष्टाचार के बारे में बताया गया है ताकि दरबार के अंदर और बाहर सामान्य प्रजा पर दरबारी संस्कृति की श्रेष्ठता सिद्ध हो सके। अभिजात वर्ग के रहन-सहन एवं हाव-भाव में हमेशा दरबारी संस्कृति की झलक मिलती थी। इसकी दिलचस्प बात यह है कि सार्वजनिक या निजी स्थान पर शिष्टाचार में कोई अंतर नहीं होता था। यह शिष्टाचार विशेषाधिकारों के सिद्धांत पर आधारित था।
मुगल काल में विनम्रता और शिष्टाचार के लिए मिर्जाई शब्द का इस्तेमाल किया जाता था। इस शब्द का प्रयोग विशेषकर उन व्यक्तियों के लिए किया जाता था जो सांस्कृतिक और सभ्य जीवन शैली जीते थे। 17वी सदी में मिर्जा कामरान ने मिर्जानामा की रचना की जिसमें मीर्जाई शिष्टाचार, संस्कृति और तौर तरीके और नियमों का उल्लेख किया गया है।
मिर्जानामा के अनुसार एक शिक्षित व्यक्ति को अरबी, फारसी और तुर्की भाषा का ज्ञान होना चाहिए। इसके अलावा समाज में मिर्जा को बातचीत के दौरान किसी भी प्रकार की गलती से बचने की कोशिश करनी चाहिए क्योंकि बातचीत के दौरान की गई गलती एक मिर्जा के लिए एक बहुत बड़ी गलती मानी जाती थी।
नूरजहां बेगम के भाई के पुत्र अबू सईद अपने मिर्जाई अंदाज सुंदरता और राजशाही के लिए जाने जाते थे। दरबार में जाने से पहले वह अपनी पगड़ी को सही तरीके से व्यवस्थित करते थे, और कभी-कभी जब वह अपनी पगड़ी की व्यवस्था से संतुष्ट नहीं होते थे तो वह घुड़सवारी के लिए भी नहीं जाते थे।
अखिलाकी ग्रंथ के लेखकों का उद्देश्य लोगों में चरित्र की कमियों को दूर करना था ताकि एक शांतिपूर्ण सामाजिक व्यवस्था बनाई जा सके। राज्य के सभी घटक जैसे सेना और कानून सामाजिक संतुलन बनाने के लिए स्थापित किए गए थे। राज्य के अधिकारियों की नियुक्ति भी इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर की जाती थी।
अकबर के दरबार में अख़लाक़ी परम्परा
अकबर ने न केवल साम्राज्य का विस्तार किया, बल्कि एक ऐसी शासन प्रणाली की नींव भी रखी जो नैतिकता, न्याय और सभी के प्रति सहिष्णुता के सिद्धांतों पर आधारित थी। उनकी अखलाकी परंपरा का पालन उनके व्यक्तिगत आचरण, उनकी नीतियों और उनके द्वारा स्थापित प्रशासनिक ढांचे में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। अकबर की अखलाकी परंपरा का सबसे महत्वपूर्ण पहलू उनकी धार्मिक सहिष्णुता की नीति थी। उनका मानना था की साम्राज्य को एकता और शांति से शासित करने के लिए सभी धर्मो का सम्मान करना आवश्यक है।
1564 के बाद अकबर सूफी सिद्धांत के प्रति तेजी से आकर्षित हुआ, जिसने उसे विश्वदृष्टि की नजर प्रदान की। वदत उल वजूद (सभी धर्म या तो सत्य या भ्रम) की अवधारणा उनके दृष्टिकोण के केंद्र में आ गई। उन्होंने चिश्ती सिलसिले का सम्मान करना शुरू कर दिया और 1573 तक ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती को अपना आध्यात्मिक गुरु घोषित कर दिया। 1575 में अकबर ने फतेहपुर सीकरी में धार्मिक बहासो के लिए इबादतखाना बनवाया। यह शुरू में केवल सूफी, शेख, उलेमा और सम्राट के कुछ पसंदीदा लोगों के लिए खुले थे बाद में इसे हिंदू, सिखो, ईसाइयों और पारसियों के लिए भी खोल दिया गया।
अकबर के काल में धार्मिक वाद-विवाद को बढ़ावा इख्तियार अल-हुसैनी के लेखो के कारण मिला। अल हुसैनी उन अखलाकी लेखको में से एक थे, जिनका प्रभाव मुगल नीतियों पर निरंतर रहा। अल हुसैनी ने लोगों को श्रेणियां में विभाजित किया था। जिनमें से प्रमुख है:-
1. विद्वान पुरुष जिन्होंने दूसरों को प्रेरित किया।
2. कुशल पुरुष जो दूसरों को प्रेरित नहीं कर सके।
3. वह जो न अच्छे थे न बुरे
4. वे जो दुष्ट थे और उन्हें फटकारने की आवश्यकता थी।
इस वर्गीकरण के शीर्ष पर उन्होंने उन विद्वान और संत पुरुषों को रखा जो अच्छे थे और दूसरों को उनका अनुसरण करने के लिए प्रेरित करते थे, अथवा जिन्होंने अपने ज्ञान और बुद्धि से अपने राज्य की प्रगति सुनिश्चित की। उन्होंने सुझाव दिया कि राजा को उनकी सलाह लेनी चाहिए और उन्हें महत्वपूर्ण कर्तव्यों का प्रभारी बनाना चाहिए। इनके विचारों से प्रतीत होता है कि अकबर ने इबादतखाना स्थापित करते समय इस सलाह को माना।
हालांकि इसके बावजूद भी इबादतखाना में होने वाली बेहसों ने अकबर के मन में भ्रम पैदा किया और उसकी वैचारिक जटिलताओं को बढ़ाया। इसने अकबर को विश्वास दिलाया कि हर धर्म में कुछ सच्चाई है और सभी धर्म एक ही सर्वोच्च वास्तविकता की ओर संकेत करते हैं। इस प्रकार अकबर के शासनकाल में सुलह-ए-कुल या पूर्ण शांति की अवधारणा का जन्म हुआ। सुलह-ए-कुल की नीति में शिया मुसलमान और गैर मुस्लिम समुदायों को संरक्षण प्रदान करना शामिल था। विद्वान अतहर अली के अनुसार दोनों ही श्रेणियां ने अकबर के अधीन मनसबदारी प्रणाली में ऊंचे पद प्राप्त किए। इसके अलावा उलेमा वर्ग से संरक्षण की उम्मीद की जाने लगी, जो अकबर की धार्मिक नीतियों के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया अपनाने लगे थे।
इन सभी घटनाओं का अंत 1579 में हुआ जब महजर पर हस्ताक्षर किए गए। जिसमें घोषणा की गई कि ईश्वर की नजर में सम्राट का पद सबसे ऊंचा है। जिसका मतलब था कि भविष्य में यदि कोई धार्मिक विवाद होता है तो सम्राट का फैसला अंतिम होगा। इस महजर के माध्यम से ही सुलह-ए-कुल को पहली बार प्रमाणित किया गया था।
सम्राट अकबर ने इस बात पर जोर दिया कि लोगों का कल्याण और उनके लिए न्यायिक शासन स्थापित करना उसकी सर्वप्रथम प्राथमिकता है। इस मोड़ पर हम अकबर को अखलाकी सिद्धांत “न्याय” और “सहयोग” की भावना को अपनाते हुए देखते है।
इसके अलावा अकबरनामा के महान इतिहासकार अबुल फजल ने अकबर को ख्वाजा नासिर अल-दीन तुसी के अखलाकी कार्यों को सुनने की सलाह दी। तुसी ने यूनानी दार्शनिक और वैज्ञानिक परंपरा को इस्लामी समाज के विचारों के साथ जोड़ा। उनके अनुसार आपसी प्रेम और सहयोग, सामाजिक एकता प्राप्त करने का सबसे अच्छा तरीका है। तुसी ने आदर्श राजनीति की अवधारणा प्रस्तुत की, जिसमें उन्होंने कहा कि पृथ्वी पर ईश्वर का सच्चा प्रतिनिधि वही है जो लोगों की क्षमताओं और योग्यताओं का समर्थन करता है।
इस प्रकार एक न्यायप्रिय गैर-मुस्लिम शासक एक अन्यायप्रिय मुस्लिम शासक से बेहतर था। अखलाकी लेखो में राजा के आदर्श कार्यों का वर्णन मिलता है जैसे:- राजा एक सुव्यवस्थित समाज का केंद्र होता है। एक न्यायप्रिय शासक स्नेह के माध्यम से शासन करता है। वह अपनी इच्छा और लालच से नियंत्रित नहीं होता बल्कि अपनी बुद्धि पर निर्भर रहता है। एक अच्छे चिकित्सक की तरह वह जानता है कि उसकी प्रजा को क्या बीमारी है और उसका इलाज कैसे किया जा सकता है। वह हर दिन जनता की शिकायतों को सुनने और दूर करने के लिए एक समय निर्धारित करता है। अकबर द्वारा संचालित दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास की सभाएं इसका उदाहरण पेश करती है।
इसी आधार पर अकबर ने उपदेश दिया कि कमजोरों की रक्षा से बढ़कर कोई अन्य इबादत नहीं। एक राजा के लिए न्याय प्रदान करना और राज्य को सुचारू रूप से चलाना ही इबादत करना है। उन्होंने इस्लामी कानून के खिलाफ तर्क दिया कि महिलाओं को अपने पिता की संपत्ति में हिस्सा मिलना चाहिए, इसके लिए उन्होंने तर्क दिया कि चूंकि वह कमजोर वर्ग से है इसलिए वह सुरक्षा की अधिक हकदार है। अकबर ने अन्य धर्म में उन प्रथाओं की भी आलोचना की जो कमजोर अल्पसंख्यको के लिए दमनकारी थी, हिंदू धर्म की सती प्रथा इसका एक उदाहरण है।
अकबर ने किसी विशेष धर्म का महिमामंडन करने के बजाय प्राचीन फारसी सिद्धांत प्रकाश, निराकार और रूपहीन को अपनाया। इस प्रकार उन्होंने सूर्य को प्रकाश के रूप में प्रतिष्ठित किया। अकबर ने झरोखा दर्शन की प्रथा शुरू की, जिसमें सुबह सम्राट के दर्शन करना शुभ माना जाता था। इसके पीछे यह विश्वास था कि उनके दर्शन से ही दिव्य प्रकाश प्राप्त होता है। विद्वान आर.एस शर्मा के अनुसार वह अपना कोई धर्म शुरू नहीं करना चाहते थे और न ही वह खुद का भगवान जैसा व्यक्तित्व बनाना चाहते थे।
एकेश्वरवाद अकबर के विश्वास की नींव थी। साथ ही उनके अनुसार पूर्ण मनुष्य वह था जो मोहब्बत-ए-कुल (सभी के लिए पूर्ण प्रेम) प्राप्त कर सकता था और इसे प्राप्त करने का एकमात्र मार्ग सुलह-ए-कुल था। सुलह-ए-कुल ने यह अनिवार्य किया कि अकबर हर उस व्यक्ति का सम्मान करें जो भी धर्म वे चुनते हैं। अकबर हिंदू मूर्ति पूजा और मुस्लिम इबादत दोनों के आलोचक थे। फिर भी उन्होंने धार्मिक ग्रंथो का फारसी में अनुवाद करवाया ताकि प्रजा के बीच अन्य धर्म की सराहना को बढ़ाया जा सके। यह भी अकबर की अखलाकी धारणा का एक उदाहरण था। मकतबखाना में धर्म ग्रंथो का अनुवाद करवाया गया जिसमें महाभारत, रामायण, पंचतंत्र, राजतरंगिणी और अन्य ग्रंथ शामिल थे।
अकबर द्वारा किए गए महत्त्वपूर्ण कार्य:-
जज़िया कर का उन्मूलन: गैर-मुस्लिमों पर लगने वाले जज़िया कर को समाप्त करना उनका एक महत्वपूर्ण कदम था, जिसने सभी नागरिकों को समान माना।
इबादतखाना: उन्होंने फतेहपुर सीकरी में 'इबादतखाना' (प्रार्थना घर) बनवाया, जहाँ विभिन्न धर्मों के विद्वान आपस में धार्मिक और दार्शनिक विषयों पर चर्चा करते थे। इससे उन्हें विभिन्न धर्मों के सार को समझने और आपसी सम्मान को बढ़ावा देने में मदद मिली।
दीन-ए-इलाही: अकबर ने 'दीन-ए-इलाही' नामक एक नई विचारधारा की शुरुआत की, जिसका उद्देश्य सभी धर्मों के सर्वोत्तम सिद्धांतों को एक साथ लाना था। इसने नैतिकता, ईमानदारी, शांति और न्याय जैसे सार्वभौमिक मूल्यों पर जोर दिया।
न्याय और निष्पक्षता: अकबर की शासन प्रणाली न्याय और निष्पक्षता के सिद्धांतों पर आधारित थी। वह नियमित रूप से खुली अदालत लगाते थे, जहाँ आम नागरिक अपनी शिकायतें सीधे सम्राट के सामने रख सकते थे।
कानून का शासन: उन्होंने कानूनों को समान रूप से लागू करने पर जोर दिया, चाहे व्यक्ति किसी भी धर्म या सामाजिक वर्ग का हो।
योग्यता आधारित प्रशासन: उन्होंने 'मनसबदारी' प्रणाली की शुरुआत की, जो योग्यता और सेवा के आधार पर अधिकारियों की नियुक्ति और पदोन्नति पर आधारित थी, न कि जन्म या धर्म पर।
नैतिक मूल्य: अकबर ने अपने व्यक्तिगत जीवन और शासन में उच्च नैतिक मूल्यों का पालन किया। उन्होंने हमेशा सत्य और ईमानदारी को महत्व दिया।
वह अपने प्रजा के प्रति दयालु और करुणावान थे। उन्होंने कई अमानवीय प्रथाओं को समाप्त करने का प्रयास किया, जैसे कि सती प्रथा को प्रतिबंधित करना। उन्होंने अपने साम्राज्य में शांति और सद्भाव बनाए रखने के लिए लगातार प्रयास किए। उनकी 'सुल्ह-ए-कुल' (सर्वत्र शांति) की नीति इसी उद्देश्य की ओर एक महत्वपूर्ण कदम था।
संक्षेप में, अकबर का अखलाकी परंपरा का पालन उनके शासन के हर पहलू में दिखाई देता है। उनकी धार्मिक सहिष्णुता, न्यायप्रियता और उच्च नैतिक मूल्यों ने मुगल साम्राज्य को एक मजबूत और समृद्ध नींव प्रदान की और उन्हें इतिहास के महानतम शासकों में से एक बना दिया।
References:-
Muzaffar Alam, Francoise Nalini Delvoye, Marc Gaborieau, "The Making of Indo-Persian Culture Indian and French Studies"
Muzaffar Alam "The Languages of Political Islam"
S.A.A. Rizvi. "Religious and Intellectual History of Muslims in Akbar's Reign"
Ali, M. Athar, and M. Akhtar Ali. "Sulh i kul and the Religious Ideas of Akbar"
Iqtidar Alam Khan. "The Nobility under Akbar and the Development of His Religious Policy, 1560-80”
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