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जनवरी, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन

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बुकर टी. वाशिंगटन और नागरिक अधिकार आंदोलन अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन (1955-1968) का उद्देश्य अफ्रीकी अमेरिकी लोगों के खिलाफ नस्लिय भेदभाव को गैर कानूनी घोषित करना और दक्षिण अमेरिका में मतदान अधिकार को पुन: स्थापित करना था। गृहयुद्ध के बाद अश्वेतों को गुलामी से मुक्त कर दिया गया था लेकिन उसके बावजूद भी उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। पुनर्निर्माण और द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच अश्वेतों की स्थिति ओर खराब हो गई। इस दौरान बुकर टी. वाशिंगटन इनके लिए एक प्रभावशाली नेता बनकर उभरे। वाशिंगटन ने अफ्रीकी-अमेरिकियों के लिए व्यावसायिक शिक्षा और औद्योगिक शिक्षा को बढ़ावा दिया ताकि वह आर्थिक रूप से संपन्न और कुशल बन सके। पृषठभूमि दक्षिण अमेरिका में अश्वेतों ने संघर्ष कर अपने आपको दासता मुक्त कराया। अश्वेतों ने अपनी संस्थाएं बनाई जिससे अश्वेत राष्ट्रवाद का उदय हुआ। नेशनल नीग्रो कन्वेंशन जैसे कई नीग्रो संगठन बने। गृहयुद्ध के दौरान अफ्रीकी-अमेरिकी नेताओं के बीच कट्टरपंथी विचारों का विकास हुआ। बिशप एम. टर्नर, मार्टिन आर. डेलानी और अलेक्ज़ेंडर क्रूमेल ने अश्वेतों के लिए एक स्वायत्त राज्य की...

स्पर्टा नगर - राज्य और राजनीतिक संरचना

स्पार्टा का नगर-राज्य में कुछ हद तक और असामान्य सरकारें थी जिसमें राजतंत्र, कुलीनतंत्र और लोकतंत्र का मिश्रण था। इसकी सरकार का चरित्र कुलीनतांत्रिक था। एथेंस के विपरीत स्पार्टा ने अपने राजनीतिक ढांचे में कभी नए समूह को जगह नहीं दी। स्पार्टा में शुरू से ही सरकार में सभी नागरिकों के लिए भूमिका थी। पुरातन काल के शुरुआती दौर में भी स्पार्टा की सभा राज्य का एक सक्रिय अंग थी। यूनानी देवता अपोलो की उपासना से जुड़े समारोह के अवसर पर सभा की बैठकें होने के विवरण मिले हैं। इसलिए स्पार्टा की सभा को कभी कभी "अपेला" भी कहते हैं। स्पार्टा की परिषद एक शक्तिशाली कुलीनतांत्रिक निकाय थी जिसे "गेरोउसिया" कहते थे। इसमें 30 सदस्य थे। इसके दो सदस्य स्पार्टा के राजा होते थे। स्पार्टा में एक अनोखी तरह की राजशाही थी। दो भिन्न कुलों से जुड़े हुए दो राजा एक साथ राज करते थे। यह अपने आप में राजा के सीमित अधिकार का संकेत है। राजा परिषद के ऐसे सदस्य थे, जिसे परिषद में कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं था। बाकी 28 सदस्य कुलीन परिवारों से लिए जाते थे। यह 28 सदस्य जेरोन्टस कहलाते थे। सभी 60 साल या उससे ज्...

एथेंस नगर - राज्य तथा राजनीतिक संरचना

एथेंस नगर-राज्य में सभा लोकतंत्र की बुनियादी संस्था थी। एथेंस में जन का मतलब सिर्फ वही लोग थे जिन्हें हम नागरिक कह सकते हैं। महिलाएं इसमें शामिल नहीं थी। सिर्फ व्यस्क पुरुषों को ही नागरिक होने का विशेषाधिकार प्राप्त था। जनसभा में तमाम लोग शामिल नहीं होते थे जो पोलिस के मूलनिवासी नहीं थे। स्पार्टा में यह गैर-नागरिक "पेरीओइकोइ" तथा एथेंस में "मेटिक" कहलाते थे। पोलिस की दूसरी विशेषता एक परिषद की उपस्थिति थी। यह शासन का ठोस कामकाज संभालती थी। राजशाही के अंतर्गत कबीलों के प्रमुखों और बुजुर्गों को लेकर गठित परिषद एक सलाहकार निकाय थी। इलियड और ओडिसी में राजा महत्वपूर्ण मुद्दों पर परिषद से सलाह करता था। यूनानी लोकतंत्र में एथेंस का एक विशेष महत्व है। एथेंस के राजनीतिक ढांचे के बारे में जानकारी दूसरे राज्यों की तुलना में ज्यादा व्यापक है। 594 ई• पू• में सोलन का सुधार एथेंस में लोकतंत्र की उत्पत्ति का एक महत्वपूर्ण चरण था। एथेंस में लंबे समय से सभा की बैठक नहीं हुई थी। सोलोन ने नागरिकों की सभा बुलाकर उसे पुनर्जीवित किया। उसने 400 सदस्यों की एक नई परिषद गठित की। नई परिषद ...

प्राचीन यूनान में दासप्रथा

प्राचीन यूनान में दासप्रथा के महत्वपूर्ण लक्षणों की चर्चा कीजिए। परिचय:- प्राचीन यूनान पहली सभ्यता थी जहां उत्पादन के सभी क्षेत्रों में गुलामों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया। वर्ग-विभाजन, अधिशेष का उत्पादन, राज्य का निर्माण और युद्ध ने गुलामी के लिए स्थितियां तैयार कर दी थी। गुलामों का पहला जत्था युद्ध बंदियों से तैयार हुआ। कर्ज अदा नहीं करने के कारण गुलाम बनाए गए लोग भी इनमें शामिल थे। बाहरी लोगों को गुलाम बनाना ज्यादा आसान होता था क्योंकि समुदाय से उनका कोई रिश्ता नहीं था और ना ही उनकी कोई हैसियत थी। इसलिए उनका बेरहमी से शोषण किया जा सकता था। गुलामों का इस्तेमाल हर क्षेत्र में किया जाता था। इन गुलामों में महिलाएं भी शामिल थी। महिला गुलामों का इस्तेमाल खासकर महलों के कामकाज में किया जाता था। गुलामों से नियमित प्रशासनिक कामकाज भी कराए जाते थे। गुलाम पुलिसकर्मी और जेलकर्मी के रूप में तैनात किए जाते थे। इतिहासकार गेर्डा लर्नर ने अपनी पुस्तक "दी क्रिएशन ऑफ पैट्रियारकी" में कहां की पितृसत्तात्मक समाज गुलामी के लिए महत्वपूर्ण पूर्व शर्त थी। वह कहती है कि पितृसत्तात्मक समाज ग...

ऋग्वैदिक काल के राजनीतिक पहलू

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ऋग्वेद काल की जनजातियों में निरंतर युद्ध हुआ करता था। ऋग्वेद में देवताओं से युद्ध में जीतने के लिए प्रार्थना की गई है। ऋग्वेद में राजन या राजा शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है। उस समय राजतांत्रिक राज्य का विकास नहीं हुआ था इसलिए इस शब्द का प्रयोग राजा के स्थान पर जन के मुखिया या श्रेष्ठ व्यक्तित्व के लिए किया जाता था। इसका कार्य अपने जनों की रक्षा करना तथा युद्ध में विजय दिलाना था। यह एक प्रकार के सरदार होते थे, पर उनके हाथ में असीमित अधिकार नहीं रहता था क्योंकि उसे कबायली संगठनों से सलाह लेनी पड़ती थी। कबीले की आम सभा, जो समिति कहलाती थी, अपने राजा को चुनते थे। credit: third party image reference वह अपने कबीले के मवेशी की रक्षा करता था, युद्ध में लड़ता था और कबीले की ओर से देवताओं की प्रार्थना करता था। ऋग्वेद में कबीलों या कुलों के आधार पर बहुत से संगठनों के उल्लेख मिलते हैं जैसे सभा, समिति, विदथ, गण। यह संगठन विचार-विमर्श करते थे तथा सैनिक और धार्मिक कार्य देखते थे। स्त्रियां भी इस सभा में भाग लेती थी। प्रशासन में कुछ अधिकारी राजा की सहायता करते थे। सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी पुरोहित होता थ...

ऋग्वैदिक समाज

ऋग्वेद में वर्ण शब्द का प्रयोग रंग के अर्थ में होता था। प्रतीत होता है कि आर्य भाषा भाषी गौर वर्ण के थे और मूलनिवासी लोग काले रंग के। आर्य द्वारा जीते गए दास, गुलाम और शूद्र कहलाए। जीती गई वस्तुओं में कबीले के सरदारों और पुरोहितों को अधिक हिस्सा मिलता था। वह अपने भाई बंधुओं को वंचित करते हुए अधिकाधिक संपन्न होते गये। इससे कबीले में सामाजिक असमानता का उदय हुआ। धीरे धीरे कबायली समाज तीन वर्गों में बट गया योद्धा, पुरोहित और जनसामान्य। चौथा वर्ग जो शूद्र कहलाता था, ऋग्वेद काल के अंत में दिखाई पड़ता है क्योंकि इसका सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद के दशम मंडल में है, जो सबसे बाद में जोड़ा गया। पुरोहितों को दक्षिणा में मुख्य रूप से दासिया दी जाती थी जिनसे घरेलू काम कराया जाता था। ऋग्वेद के काल में ही व्यवसाय के आधार पर समाज में विभेदीकरण आरंभ हुआ। गाय, रथ, घोड़े, दास-दासीयां दान में दिए जाते थे। युद्ध में जीते गई संपत्ति का असमान वितरण होने के कारण समाज में असमानता आई और इससे सामान्य कबायली लोगों को वंचित करते हुए राजाओं और पुरोहितों को आगे बढ़ने में सहायता मिली। ऋग्वेद में उस काल की सामाजिक व्यवस्था...

ऋग्वैदिक काल की अर्थव्यवस्था

श्रगवैदिक लोग कृषि और पशुपालन दोनों करते थे। पशुपालन इनका प्रमुख आर्थिक आधार था, इसके बाद कृषि महत्व रखता था। इन लोगों को खेती की बेहतर जानकारी थी। हल के लिए यह फाल, लांगल तथा सिरा का प्रयोग करते थे। इन्हें बोवाई, कटाई और दावनी का ज्ञान था। इन्हें विभिन्न ऋतुओं के बारे में भी जानकारी थी। यह लोग अच्छी वर्षा तथा अच्छी उपज इत्यादि के लिए प्रार्थना करते थे। यह कृषि भूमि के लिए इंद्र की उपासना करते थे। इंद्र को फसलों का संरक्षक तथा उर्वर भूमि को अर्जित करने वाला देवता के रूप में उल्लेख किया गया है। ऋग्वेद में गाय और सांड की इतनी चर्चा है कि ऋगवैदिक आर्यों को मुख्य रूप से पशुचारक कहा जाता है। गाय सबसे उत्तम धन मानी जाती थी। पुरोहितो को दी जाने वाली दक्षिणा में गाय दी जाती थी। ऋग्वेद में रथ बनाने वाले, बैलगाड़ी बनाने वाले, बढ़ाई, धातु के कारीगर, रंगाई करने वाले, धनुष बनाने वाले तथा चटाई बनाने वालों की चर्चा की गई है। एक समुदाय दूसरे समुदाय से उपहारों का आदान-प्रदान करते थे। यज्ञ और अनुष्ठानों के बदले पुरोहित दान और दक्षिणा लेता था। श्रगवैदिक ग्रंथों में वाणिज्य और व्यापार काफी गौंण प्रतीत होत...

हड़प्पा सभ्यता का सामाजिक जीवन

कालीबंगा के एक सिल पर सिंह वाले देवता के सामने एक पशु को खींच कर ले जाते हुए दिखाया गया है। कुछ लोगों ने इसे पशु बलि प्रथा माना है। कालीबंगा से ही प्राप्त एक अन्य सिल पर एक ही स्त्री को दो पुरुष बलपूर्वक खींच रहे हैं और उनके हाथो में तलवार है। कुछ लोगों का मानना है कि यह नर बलि की प्रथा हो सकती है। हड़प्पा सभ्यता से जुड़े धार्मिक आस्थाओं का सबसे अच्छा उदाहरण कालीबंगा की यज्ञवेदियां या अग्निकुंड से मिलता है। हड़प्पा, कालीबंगा, लोथल, राखीगढ़ी और सुरकोतदा में पाए गए कब्रों का अध्ययन किया गया है। इन कब्रों में शव को लिटा कर उत्तर की दिशा में गड्ढे या ईंटों के बने कब्र में दफनाया गया है। शवों के साथ भोजन, मृदभांड, औजार और आभूषण भी रखे जाते थे। यह इसके धार्मिक उद्देश्य को दर्शाता है। इन बातों से स्पष्ट होता है कि हड़प्पा के निवासी वृक्ष, पशु और मानव के स्वरूप में देवताओं की पूजा करते थे परंतु वह अपने इन देवताओं के लिए मंदिर नहीं बनाते थे। इनके बीच जो अंतर था वह उनका इस्तेमाल करने वाले वर्गों के बीच अंतर का सूचक है। प्रथम कोटि की कलाकृतियों का उपयोग उच्च वर्ग के लोगों में होता था और द्वितीय क...

हड़प्पा सभ्यता का धर्म

हड़प्पा में मातृ-देवी कही जाने वाली मूर्तियों बड़ी संख्या में मिली हैं, जो टेराकोटा कहलाती है। एक मुहर पर एक नग्न स्त्री, सिर झुकाए दोनों पैर फैलाए है और एक पौधा उसके योनि से बाहर निकल रहा है। इसकी व्याख्या धरती माता के रूप में की गई है। इसका संबंध पौधे के जन्म और वृद्धि से रहा होगा। इसलिए मालूम होता है कि हड़प्पा लोग धरती को उर्वरता की देवी समझते थे। विद्वान अलेक्जेण्डा् आर्दिलेना जैनसन ने हड़प्पा के टेराकोटा कला का अध्ययन किया और इन्होंने स्त्री-मूर्तिकाएं में काफी भिन्नता पायीं है।  हड़प्पा से एक पुरुष देवता की चित्रित मुहर मिली है। वह एक योगी की ध्यान मुद्रा में एक टांग पर दूसरी टांग डाले बैठा दिखाया गया है। इन्होंने भैंसे के सिंह का मुकुट पहना है। वह चार पशुओं से घिरा है- हाथी, गैंडा, भैंस और बाघ। इनके नीचे एक भैंसा है और पांव पर दो हिरण। जॉन मार्शल ने इन्हें "पशुपति महादेव" बतलाया है। इन्हें हिंदू धर्म के शिव देवता जैसी समानता इसमें दिखाई दी, जो पशुपति के नाम से जाने जाते हैं। हड़प्पा के लोग लिंग और योनि की पूजा भी करते थे। यह पुरुष और स्त्री के प्रजनन ऊर्जा का प्रतीक म...